* शासन के निर्णय को बाधित करने वाले अध्यापक विरोधी मानसिकता वालों का भी कुछ करो *
माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने कई बार अध्यापकों के पक्ष में निर्णय लिया । परंतु विचारणीय प्रश्न ये है कि इतने सारे निर्णयों के बावजूद अध्यापक शिक्षाकर्मी की स्थिति में ही क्यों बना हुआ है ? इसका कारण ये है कि शिक्षाकर्मी /संविदा शिक्षक से अध्यापक बना ये संवर्ग सिर्फ मंहगाई के अनुपात में ही बढ़ा हुआ वेतन पा रहा है । यदि आप बाजार से तुलना करें तो लगभग स्थिति वैसी की वैसी ही है। 1998 में सहायक अध्यापक का न्यूनतम वेतन 2256 था , सहायक अध्यापक बनने के बाद 2007 में बेसिक 3000 पर मंहगाई 20 प्रतिशत के साथ न्यूनतम वेतन हुआ 3600 ।कहने को अध्यापक संवर्ग का गठन हुआ ।खूब ढोल पिटा ।परंतु मिला क्या ? 9 सालों में न्यूनतम वेतन में वृद्धि सिर्फ 1344 रुपए । वहीं 2013 में 1.62 के गुणांक वाला आदेश लागू हुआ तब 3000*1.62=4860 +1250=6110
6110 पर मंहगाई 72 प्रतिशत सहित कुल वेतन में वृद्धि 10510 रुपए ।इस बार न्यूनतम वेतन में इजाफा तो हुआ परंतु तब तक मंहगाई बहुत अधिक बढ़ चुकी थी। यहां पर भी 1.86 के गुणांक के स्थान पर 1.62 का गुणा हुआ ।1998 से 2013 की तुलना करें तो 15 सालों में वेतन चार गुना ही बढ़ा जबकि इतने ही सालों में मंहगाई कई गुना बढ़ जाती है ।
कहने का तात्पर्य ये कि हर आंदोलन के बाद कुछ- कुछ तो मिला परंतु सबकुछ नहीं मिला। उल्लेखनीय बात ये है कि जो लाभ अन्य कर्मचारियों को बिना किसी आन्दोलन के पूरा मिला वो लाभ अध्यापकों को आन्दोलन करने पर भी आधा-अधूरा मिला।
हर आन्दोलन के बाद जो और जितना मिला , शीर्ष नेतृत्व उसी पर खुश हो गया । उसमें सुधार का साहस नहीं कर सका । हर आन्दोलन के बाद हुए निर्णय के बाद शीर्ष नेतृत्व विसंगतियों का विरोध करने के बजाय आत्म मुग्ध हो उसे अपनी सफलता बताकर शासन का आभार प्रकट करने की दिशा में आगे बढ़ा। परिणाम स्वरूप शासन का प्रशासन से दबाव हटा और प्रशासन अध्यापक विरोधी आदेश जारी करने में सफल होता रहा।
अध्यापक नेताओं की मानें तो वे ऐसा करने के लिए मजबूर होते हैं क्योंकि आंदोलन में अध्यापकों की भागीदारी क्रमश: घटती जाती है। परंतु यह धारणा सही नहीं है । 100 प्रतिशत भागीदारी न कभी संभव हुआ है न होगा। परंतु हमें अपने हक के लिए विसंगतियों के विरोध में अपनी बात रखनी होगी। सही कहें तो 2016 में छठे वेतन का मिलना सातवे वेतन का आधार नहीं है । हां , इस बात का आधार जरूर है कि अधिकारी हमें राज्य कर्मचारियों से 10 वर्ष पीछे रखना चाहते हैं उसमें भी आधा-अधूरा देकर । वे अपनी गोटी खेलने में सफल रहे हैं ।रही बात मुख्यमंत्री जी की घोषणा का।तो उनके घोषणा की कैसी धज्जियां अधिकारी उड़ाते हैं वो अभी ही सामने है । जब अधिकारी ग्रेड पे 2400 के साथ 5200 का जोड़ करके अपनी कारिस्तानी दिखाते हैं ।रही बात सातवें वेतनमान की तो 2008 में जब अध्यापकों को 20 प्रतिशत अंतरिम राहत दिया गया था तब भी माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने कहा था - "मैने अधिकारियों को कहा है अध्यापकों को भी छठे वेतन का लाभ समय से मिलना चाहिए।" वो समय अभी तक नहीं आया। इसलिए जिन बातों का उल्लेख आदेश में नहीं हो , उन पर उम्मीद करना ठीक नहीं है ।
ये आंदोलन सफल इसलिए माना जाएगा क्योंकि यह पूर्व आदेश से तय था कि जो लाभ 01/01/2016 से अब मिलेगा वही लाभ 01/09/2017 से मिलता। किंतु हम इस आंदोलन को खड़ा इसलिए कर पाए क्योंकि हम यह बताने में सफल हुए कि एक) 2013 के आदेश में अंतरिम राहत की गणना में 7440 के स्थान पर 5200 से गणना कर सरकार ने चीटिंग की और अंतरिम राहत में कुल मिलाकर 4000 से 5000 की चपत लगाई जिसका समायोजन पर भी प्रति माह कम से कम इतने का ही नुकसान होगा ।(जो अब समायोजन पर स्पष्ट हो गया ) दूसरा ) हमने स्वीकार किया कि यदि छठे वेतन का निर्धारण दिसम्बर 2015 में नहीं हो जाता तो हम सातवे वेतन के अधिकारी नहीं रहेंगे ।
हम जिन दो बातों को लेकर आंदोलन करने में सफल हुए आज भी उन दोनों के विरुद्ध आदेश जारी होने की आशंका है । इन परिस्थितियों में मिल रहे लाभ को सिर्फ "ना मामा से काना मामा सही" से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता ।
सवाल ये है कि जब लाभ देने का निर्णय शासन करती है तब तंत्र उस लाभ को कम करने की कोशिश क्यों करता है ? यदि इसमें शासन की मिलीभगत है तो फिर शासन और मुख्यमंत्री जी का यह निर्णय पाक-साफ कैसे है ? और यदि इसमें शासन की मिलीभगत नहीं है तो शासन ऐसे अधिकारियों पर मेहरबान कैसे है ? क्या हमें शासन के निर्णय को बाधित करने वाले अध्यापक विरोधी मानसिकता वालों के खिलाफ भी लामबंद होने की जरूरत नहीं है ?
-अज्ञात अध्यापक
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