सादर वंदन
क्रांतिकारी की कड़वी कलम....
प्रिय साथियों,
कल गुना जिले में दो संघो के भीषण प्रतिस्पर्धा के महायुध्द में जो महत्तवाकांक्षा और अहंकार की वासना दिखी वह कभी अध्यापकहितेषी नही हो सकती।संघो की प्रतिस्पर्धा युध्द के कारण अध्यापकहित महासागरीय गर्त मे चला गया है।क्या इस प्रकार के संघो के आपसी शक्ति प्रदर्शन से अध्यापक एकता खण्डित नही होगी।....????
क्या इस संघो की वर्चस्व की लडा़ई से हर बार अध्यापक इसी प्रकार छलता रहेगा।
भरत जी को अपना अहंकार टीकमगढ़ की रैली को देखकर शांत कर लेना चाहिये।क्या भरत जी अभी भी अंहकार की चादर औढ़ना पंसद करेगे...???और समझना चाहिये कि एकता मे ही शक्ति निहित है।
क्या पाटीदार जी सत्तापक्ष के विधायक रहते अध्यापक हितों के लिये सत्ता से बगाबत कर सकते है।....????
क्या मूल उद्देश्यों को छोड़कर (6पे व संविलियन) अभी निजीकरण के विरुध्द लड़ना सही है।....????
यदि पाटीदार जी सच्चे अध्यापक हितेषी है।तो क्या उन्हें विधायक पद से इस्तीफा नही देना चाहिये।
क्या पाटीदार जी सत्ता का कवच पहनकर अध्यापकों के सच्चे मसीहा बन सकते है।
क्या जगदीश यादव जी का यह कहना कि सही होगा कि छटवे वेतनमान के आदेश को लेकर समस्त शंकाओ को खारिज करते हुये उच्च अधिकारी से चर्चा हुई।क्या इसका मतलब यह समझा जाये कि आदेश विसंगतिरहित होगे।क्या इसका मतलब यह समझा जाये कि कहीं सत्तापक्ष के विधायक जी से शासन से फिर से कोई पैक्ट तो नही हो गया।
यदि ऐसा नही तो मूल उद्देश्यो (6पे व संविलियन) को छोड़कर नीजीकरण पर फोकस करना क्या सही है।....???
यदि ऐसा नही तो आंदोलन के शंखनाद की घोषणा क्यों नही....???
यदि संघो की यही कार्यप्रणाली रही समय रहते अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन नही किये।तो वह दिन दूर नहीं कि प्रदेश का अध्यापक संघीय राजनीति को दरकिनार करते हुये अपनी हक की लड़ाई स्वयं लडे़गा।प्रदेश का अध्यापक बुध्दिजीवी समाज है।उन पर अब इस तरह की राजनीति की रोटीं कोई नही सेक सकता।अब दूध से जला अध्यापक अपने अधिकार चाहता है।आपसी संघीय प्रतिस्पर्धा नही।
"जिंदगी के थपेड़े तो खूब खाये मगर मंसूबे अभी मरे नहीं है,
होंसला रखते है।हम पहाड़ जैसा ,हमें ऐसे संघो की जरुरत नही है।"
-कौशल क्रांतिकारी चम्बल
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