सीधे धार से प्रवीण कुमार चौहान की कलम
प्रांन्ताध्यक्षो की महत्वाकांक्षा ...
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आम अध्यापको की ताकत को खण्ड-खण्ड मे विभाजित कर अलग-अलग संघो की तोप बनकर अध्यापको के नाम पर सियासी शंतरज के ग्यारह कप्तानो की नूराकूश्ती मे पीसता आम अध्यापक सरकार के शोषण का शिकार होता जा रहा है।आम अध्यापको की एकता के आमंत्रण को अस्वीकार करने वाले इन महारथियो का स्वाथॅ सियासत का हथियार बनता जा रहा है।आखिर इन हालातो मे भोले-भाले आम अध्यापको के अधिकारो और हितो की रक्षा कोन करेगा ? यह यक्ष प्रश्न मुँह बाँए खडा है ।
मुख्यमंन्त्री की घोषणा को दो माह बीत गए...आदेश लापता है...! बहनो के संतान पालन अवकाश पर रोक...एक माह गुजर गया...! स्थानान्तरण नीति...बरसो बीत गए...! शिक्षा विभाग मे संविलयन... कोई समय सीमा नही...! अनुकम्पा नियुक्ति...सरकार की गोलमाल नीति...! संविदा अवधि कम करने की माँग... ठंडे बस्ते मे...! आदि-आदि माँगो की समस्याओ से जूझता आम अध्यापक नेतृत्वकर्ताओ के खामोश नेतृत्व पर सवाल उठा रहा है। सोच रहा है कि गहरी चुप्पी का रहस्य क्या है ? क्या राजनैतिक गलियारो के आम चुनावो मे किसी और की टिकिट की लाटरी खुलने वाली तो नहीँ है...! यह प्रश्न इसलिए...! क्योकि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।
अब बात एकता की भी कर लेते है...जब मध्यप्रदेश का आम अध्यापक एक संघ या एक संयुक्त मोर्चे की माँग कर रहा है तो इस एकता की मिठाई से प्रांताध्यक्षो को परहेज क्यो ? क्या एकता की मिठाई से कप्तानो को पेट का हाजमा खराब होने का डर है ...या...राजनैतिक वजूद को खतरा...या...पद की मस्ती मे खलल...! आखिर एकता के एक मैदान मे ग्यारह अखाडे की जरूरत क्या ?
मित्रो... एक वाजिब जवाब की तलाश मे संघो के बहादुरो से मेरी चर्चा हुई,जवाब मिला "वो नहीँ चाहता...वो नहीँ मानता... " इन जवाबो के चक्रव्यूह के जाल मे एकता पर मँडराती महत्वाकांक्षा को मैने जाना और समझा। और यह समझ लिया कि शहद के छत्ते से इन मधुमक्खीयों को हटाकर एकता की बात करना भैस के आगे बीन बजाने वाली कहावत को चरितार्थ करने के समान है।
मित्रो मै आपसे पूछना चाहता हूँ , क्या आप अपने हितो की रक्षा चाहते हो या नही...आपका क्या कसूर है...? जो आप इन ग्यारह संघो के मायाजाल मे अपने भविष्य को खतरे मे डाल रहे हो...? आप आम अध्यापको की कृपा से सत्ता के गलियारो मे पहचाने जाने वाले इन वीर बहादुरो का अभिमान अब हमारे सर चढ़कर बोल रहा है , वर्ना क्या कारण है कि एकता के नाम पर यह विराम बने हुए है।
मित्रो ! एक धोखा खा चुके है हम, नहीँ तो हमारी सूरत की ताजगी 2013 मे ही हमारी तकदीर और तस्वीर बदल देती । अब फिर एक और दहाड़ की खामोशी हमें डरा रही है , हमें एकता के लिए सता रही है...तरसा रही है।
आओ आम अध्यापक हम ही एक बने...नेक बने...हमें नही चाहिए बिखरते भाईयो की दूरीयाँ...हम लग जाए एक-दूसरे के गले और कर दे हम ही एकता का शंखनाद...पलट दे उनके सिहांसन की बाजी जिनके छल से अब तक हम छलते रहे ।
"वक्त की माँग"..."वक्त का तकाजा"...
"आम अध्यापको की एकता"
किसी मशहूर शायर ने ठीक ही फरमाया ।
"वक्त को जिसने ना समझा...उसे मिटना पड़ा है।
बच गया तलवार से...तो फूलो से कटना पड़ा है।"
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