दुनिया के विकसित देशों में प्रायमरी education पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है. प्रायमरी स्कूलों में पढा़ने वाले शिक्षकों का वेतन बहुत अधिक होता है और उन्हें अधिक सम्मान दिया जाता है, वे उच्चशिक्षित और संवेदनशील तथा मनोवैज्ञानिक किस्म के होते हैं क्योंकि उनके पास देश का भविष्य शिक्षा लेता है. यही कारण है कि उच्च शिक्षा के बगैर भी विकसित देशों के युवा अधिक संवेदनशील और कुशाग्र होते हैं.
हमारे यहॉ प्रायमरी शिक्षकों को दोयम दर्जे का इंसान माना जाता है. पटवारी से लेकर कलेक्टर तक सबको सलामी मारकर दुनिया भर के प्रशासनिक कामों की हम्माली फिर शिक्षक की नौकरी कर जीने वाला शिक्षक भविष्य की पीढ़ी को शिक्षा से संवारने का काम कर रहा होता है पर उसके काम के अनुरूप उसको वेतन , सुविधायें नहीं मिलती और न ही सम्मान तो समझ लीजिये कि कैसे हुआ बीते सात दशकों में भारत निर्माण.
लार्ड मैकॉले जैसे पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री ने भारत की विविधता भरी संस्क्रति को जितनी आसानी से समझकर शिक्षा का जो ताना बुना वो आजादी के सात दशक पूरे होने के बाद बौद्धिक आतंकवाद के रूप में हमारे सामने आया है़.
जेएनयू ही नहीं पूरे देश में शिक्षा खासकर उच्चशिक्षा के केन्द्र बौद्धिक अय्याशी के अड्डे बन कर रह गये हैं. वि.वि. में , महाविद्यालयों में , उच्चअध्ययन केन्द्रों में कामकाज कम और पगार मोटी है. एक तरफ गरीब मजदूर को हाड़तोड़ मेहनत करके दिन भर में जहॉ दो सौ रूपये भी नहीं मिलते वही शिक्षा के कथित बिशेषज्ञ महीने भर में बमुश्किल चंद घंटे काम करके लाखों की पगार ऐंठ रहे हैं. इसलिये भी बहुतेरे लुटेरे किस्म के लोग उच्च शिक्षा ले रहे हैं कि वे जान गये हैं कि मैकॉले जैसे अंग्रेज शिक्षाशास्त्री ने भारत में जो शिक्षा का जो ढॉचा दिया है वो इनके आरामदायक जीवन की पूरी गारंटी करता है और देश के शिक्षा के लिये आवंटित बजट में से सबसे बडा़ हिस्सा इन कथित उच्चशिक्षितों की पगार के जरिये इन तक पहुंचाने की व्यवस्था सुनिष्चित करता है.
जबकि इन उच्चशिक्षित प्राध्यापकों , बिशेषज्ञों और महाज्ञानियों को यदि प्रायमरी एज्यूकेशन के कार्य में लगा दिया जाये तो न केवल मोटी पगार देने की उचित वजह भी होगी और भविष्य की पीढी़ देश और समाज के प्रति ज्यादा जागरूक निकाली जा सकेगी.
दरअसल शिक्षा प्रणाली की इसी त्रुटी से बौद्धिक आतंकवाद का वो रास्ता निकलता है जो इन तथाकथित सफेदपोशों को , बिशेषज्ञों को इस तरह के प्राध्यापकों को हरामखोरी करके बडे़ बडे सेमीनारों मे भाषणबाजी और प्रचार की भूख पैदा करता है. गाहे बगाहे ऐसे रास्ते विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं को पोसते हुए इन कथित हरामखोरों को बौद्धिक आतंकवाद की ओर धकेल देते हैं. इन भतखउ्ओं के चेले बनने वाले छात्र इनकी ही जुवॉ बोलते हैं . सॉप्रदायिकता , गरीबी , असमानता , शोषण आदि बिषयों से शुरू सफर इन विद्यार्थियों को बौद्धिक आतंकवाद मचाने का ऐसा हथियार थमा देता है जिसकी परिणिति वैसी होती है जैसी हमारे भारत में आज हो रही है.
बौद्धिक आतंकवादियों से भी उसी सख्ती से निपटा जाना चाहिये जैसे अन्य आतंकवादियों से निपटा जाता है........देश की प्रायमरी शिक्षा को बढावा देते हुए उच्चशिक्षा पर बजट का आवंटन कम किया जाना चाहिये. जेएन यू जैसे तमाम संस्थानों को बौद्धिक आतंकवाद का अड्डा बननें से रोकना देश के भविष्य के लिये हितकर होगा.
नीरज ओमप्रकाश श्रीवास्तव
मुकॉम - नागपुर
०९३७३३९०३४०
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