आजकल मोर्चा बनाने और सर्व संघ का अस्तित्व समाप्त कर महासंघ बनाने के फार्मूले हवा में तैर रहे है. मोर्चे तो पहले भी बनते रहे और बिना मोर्चे के सरकार किसी एक संघ से बात नही करती यह सच्चाई भी वरिष्ठ अध्यापक नेता जानते है किन्तु सर्व संघ मर्ज कर महासंघ का प्रस्ताव सोशल मीडिया के द्वारा जिस भाषा शैली में दिया जा रहा है वह अत्यंत दुखद एवं आपत्तिजनक है.
इतने हल्केपन से एकता की बात करना अध्यापको के साथ मज़ाक है. नित नए फार्मूले गढ़कर सर्व संघ इसकी टोपी उसके सिर तो खेल सकते है किन्तु आम अध्यापक के मन से कब उत्तर जाएंगे इनको पता भी नही चलेगा. राजनैतक चातुर्य होना बड़ी बात नही हर गली मुहल्ले में लोगो के पास बहुतायत में है मगर जो चातुर्य सकारात्मक रचनात्मक तरीके से हजारो का भला कर दे वही श्रेष्ठ कहलाता है. नेतृत्व मानवीय भावनाओ से रहित होते ही शिकारी के जाल की तरह हो जाता है जिससे सब पीछा छुड़ाना चाहते है.
विदित हो देश भर में मजदूरो किसानो कर्मचारियों की लड़ाई लड़ने वाले अलग अलग विचारधारा के संगठन सक्रिय है. कम्युनिस्ट कांग्रेसी भाजपा समाजवादी विचारधारा के एक नही अनेक संगठन सक्रिय है एवं सब अपने स्तर पर लड़ाई लड़कर सरकार से कुछ न कुछ लाभ ले ही लेते है. जहाँ व्यापक हित की बात आती है वहाँ मोर्चा बन जाता है. मोर्चा टूट भी जाता है फिर बन जाता है उसके बनने बिगड़ने में विचारधारा आड़े नही आती. गत दिनों कोयला खदानों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कर्मचारियों का संयुक्त मोर्चा बना और टूट भी गया. अब सुन रहे है फिर बन रहा है. बैंक रेलवे डब्लू सी एल एल आई सी आदि में इसका उधाहरण देख सकते है.
अतः सबका अस्तित्व समाप्त करने का सर्वथा असम्भव बचकाना कार्य छोडकर अपने स्तर से ईमानदारी से जो बन पड़े वो करना चाहिए. ध्यान रहे सरकार किसी एक संघ को श्रेय नही लेने देंगी. जो मोर्चा बनाना चाहे बनाये ...जिसको उसमे जाना है जाए.....ना जाना चाहे ना जायें. मै किसी संघ से जुड़ा नही हूँ , जो मन में है वही लिख दिया अतः सहमति आवश्यक नही.
रिज़वान खान
सामान्य अध्यापक
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